Wednesday, August 17, 2011

सुरेश कलमाड़ी-अन्ना हज़ारे वार्तालाप !


अन्ना हज़ारे की गिरफ़्तारी के बाद दिन भर सूचनाओं का सैलाब उमड़ता रहा. टीवी चैनल,फ़ेसबुक,ट्विटर,सभी ओर से अलग अलग बातें आम आदमी तक पहुँचतीं रहीं.ये ख़बर भी आई कि अन्ना को तिहाड़ जेल ले जाया गया है.और अन्ना हज़ारे को राष्ट्रमण्डल खेलों में घोटाले के आरोपों से घिरे सुरेश कलमाड़ी के पास के कमरे में ही जगह दी गई.तब मन में यह विचार आया कि यदि सुरेश कलमाड़ी और अन्ना हज़ारे आपस में मिले होंगे तो उनके बीच क्या संवाद होगा. पेश है एक काल्पनिक वार्तालाप कलमाड़ी और अन्ना के बीच. आप महसूस करेंगे कि इस भेंट का अंडर-करंट ही वर्तनाम राजनीति और हमारे समय की सब से बड़ी सचाई है.

कलमाड़ी: या बाबा या (आइये बाबा आइये)



अन्ना: अरे वाह ! आपने मुझे पहचान लिया,मैंने तो सुना था कि आपकी याददाश्त चली गई है.



कलमाड़ी:चलता है बाबा. याददाश्त का क्या है. है और नहीं भी.पर आप यहाँ कैसे ?



अन्ना:आपकी सरकार ने मुझे भेजा है यहाँ.



कलमाड़ी: पर आपने माहौल भी तो बना दिया था ऐसा !



अन्ना: मैं क्या करूँगा सुरेश राव ! ग़लत कामों का जवाब तो जनता मांग रही है.



कलमाड़ी: पर एक बात बताइये;रातो रात नया खेल क्या कर दिया आपने भ्रष्टाचार वाला ?



अन्ना: अरे तुम तो खेल खेल में बड़े खेल करने वाले हो और मुझसे पूछते हो कैसे खेल कर दिया.



कलमाड़ी:(खिसियाते हुए) नहीं अन्ना मैं तो देश की इज़्ज़त को आगे लाने के लिये लगा हुआ था.



अन्ना: काहे की इज़्ज़त रे. कभी तुम सोचते भी हो कि एक आम आदमी कैसे अपना पेट काट कर जीवन जीता है और तुम लोग भरी धूप में ग़लत काम करके भी बच निकलते हो.



कलमाड़ी: अन्ना हम तो जनता के सेवक हैं.



अन्ना:फ़ालतू बात करते हो. बड़े आए सेवक .



कलमाड़ी: अन्ना,अच्छा ये बताओ कि क्या खाओगे ? अंगूर या एप्पल का ज्यूस ?



अन्ना: मेरा तो अनशन है. पर ये बताओ कि यहाँ ये ज्यूस कैसे आता है ?



कलमाड़ी:अरे अन्ना आप भी;छोड़ो आपके लिये ये समझना मुश्किल है ज़रा.



अन्ना:और क्या क्या हो जाता है.



कलमाड़ी:आप जो बोलो वह फ़ूड आ जाएगा,चायनीज़,इटालियन,काँटीनेंटल (चहकते हुए) आप बोलो तो सही.



अन्ना:नहीं नहीं, मैं तो अनशन पर हूँ मैं देश को यही कह कर आया हूँ.



कलमाड़ी: अरे बाबा ! इथे कुठे आला देश (यहाँ कहाँ आ गया देश) कौन देख रहा है.



अन्ना: अरे सुरेश,भलेमानुष,मेरी अपनी आत्मा तो देख रही है न मुझे. मैंने कहा है कि अनशन करूंगा, तो करूंगा.तुममें और मुझमें यही तो फ़र्क़ है. तुम्हें किसी का लिहाज़ और डर नहीं. तुम अपनी आत्मा को मार कर नेतागिरी करते हो और मैं अपनी चाहनाओं को मार कर जनता की सेवा करने निकला हूँ. तुम सेवा का ढोंग करते हो और मैं सेवा को भगवान की पूजा मानता हूँ.



कलमाड़ी:अरे बाप रे ! तुम्हारी बातें तो अपनी समझ से परे है. अपन तो बाबा भूखे नहीं रह सकते. अच्छा ये बताओ कि तुम्हारी राजनैतिक महत्वाकांक्षा क्या है. आखिर ये भ्रष्टाचार वाली डुगडुगी कब तक बजाओगे ? थक जाओगे, अन्ना.बोलो तो किसी पार्टी से तुम्हारा पोलिटिकल गठजोड़ करवा दूँ ?



अन्ना:क्यों मेरा बुढापा बिगाड़ने पर तुला है रे सुरेश. मरते दम तक अपने वचन से नही डिगूंगा. और जहाँ तक किसी तरह की इच्छा,कामना और आकांक्षा का प्रश्न है वह तो अब मर गई मेरे भाई. अब तो मेरे करोड़ो देशवासियों को न्याय मिले बस यही आखिरी इच्छा है.और हाँ पार्टी-पॉलिटिक्स करनी होती तो कभी की कर लेता भाऊ !



कलमाड़ी:अच्छा अन्ना,एक बताओ ! ये भूखे रहने की ताक़त कहाँ से आती है ?



अन्ना: सुरेश जब करोड़ों भूखे-नंगे लोगों के चित्र मन में उभरने लगते हैं न अपने आप भूख मर जाती है.तुझे मालूम नहीं कि आज़ादी के ६४ साल बाद भी करोड़ों लोग ऐसे हैं तो कई कई दिन तक भूखे रहते हैं.एक बार तुम जैसे लोग उन ग़रीब-गुर्गों में जाकर देखो,अपने आप समझ जाओगे कि अन्न के बिना कैसे रहा जाता है.



कलमाड़ी:अन्ना एक बात बताओ न ! क्या आपके पास मेरे लिये यहाँ से सही सलामत निकलने का कोई आसान सा उपाय है,क्या है कि दिन तो बीत जाता है, रात को नींद नहीं आती.



अन्ना:बड़ा आसान है सुरेश,सत्य और सिर्फ़ सत्य ! सच कुबूल करो. जनता सच्चे को माफ़ करती है. क्योंकि अंत में तो तुम्हें सच बोलना ही पड़ेगा.



कलमाड़ी:तुम बताओ गाँधी बाबा को सच बोलकर क्या मिला ? गोली न ! तुम्हें क्या मिल रहा है सच बोलकर. तुम्हारे पास कितना अभाव है न कार है,न परिवार है,न बंगला है न बैंक बैलेंस है....और फ़िर तुम पर झूठे आरोप लग रहे हैं !



अन्ना: चल ऐसा कर ये शे’र सुन ले,तू अपने आप समझ जाएगा कि मेरे पास क्या है



दामन में मेरे सैकड़ों पैबंद लगे हैं

पर शुक्र है ख़ुदा का कोई दाग़ नहीं है.




Sunday, May 1, 2011

नरहरि पटेल को आंचलिक रचनाकार सम्मान


भोपाल के दुष्यंतकुमार स्मारक पाण्डुलिपि संग्रहालय के तत्वावधान में आयोजित एक विशेष समारोह में मालवा के वरिष्ठ कवि एवं संस्कृतिकर्मी श्री नरहरि पटेल को आंचलिक रचनाकर सम्मान से नवाज़ा गया. इस अवसर पर वरिष्ठ कवि श्री राजेश जोशी को दुष्यंतकुमार अलंकरण,कवि प्रो.भगवत रावत एवं कहानीकार श्रीमती मालती जोशी को सुदीर्घ साधना सम्मान तथा श्री इक़बाल मजीद को अमृत साधना सम्मान से विभूषित किया गया. सी.वी.रमन विश्वविद्यालय के कुलाधिपति श्री संतोष चौबे के मुख्य आतिथ्य एवं सागर विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति और वरिष्ठ आलोचक डॉ.धनंजय वर्मा की अध्यक्षता में आयोजित इस समारोह में बड़ी संख्या में साहित्य तथा संस्कृति के जाने माने हस्ताक्षरों ने शिरक़त की.

संतोष चौबे ने अपने उदबोधन में कहा कि अपने समय के महत्वपूर्ण रचानाकारों को सम्मानित करना एक अदभुत अनुभव है. डॉ.धनंजय वर्मा ने ने कहा कि दुष्यंतकुमार संग्रहालय अल्प समय में साहित्यिक पर अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज़ चुका है और इसके द्वारा किये जा रहे सुकार्य अत्यंत ठोस हैं.डॉ.वर्मा ने सम्मानित साहित्यकारों को बधाई देते हुए उन्हें सामाजिक सरोकारों के प्रति सजग रहने पर बधाई भी दी.
कविवर नरहरि पटेल ने सम्मान पर प्रतिभावना व्यक्त करते हुए कहा कि ये मेरा सम्मान तो है ही साथ ही मालवा के उस भावुक आदमी का सम्मान भी है जो हर हाल में गाता है और अपनी मिट्टी और तहज़ीब का दामन नहीं छोड़ता. उल्लेखनीय है कि नरहरि पटेल ने मालवी ग़ज़ल के क्षेत्र में अनूठा कार्य किया है और उनकी रचनाएं पूरे परिवेश की नुमाइंदगी करतीं हैं. नरहरिजी ने कहा कि उन्हें दुष्यंतकुमार की ग़ज़लों से ही मालवी ग़ज़ल में काम करने की प्रेरणा मिली अत: दुष्यंतकुमार संग्रहालय में सम्मानित होगा वाक़ई विशेष गौरव और आनंद की अनुभूति दे रहा है.आरंभ में श्री नरेन्द्र दीपक ने संस्था का परिचर दिया तया आभार संग्रहालय के अध्यक्ष श्री रामराव वामनकर ने माना.सम्मानित रचानकारों और अतिथियों का परिचय देते हुए राजुरकर राज ने सम्मान समारोह का भावपूर्ण संचालन किया.।

Thursday, January 6, 2011

अपने बच्चे को बच्चा ही रहने दीजिए !


यदि आप एक पालक हैं तो आपके मन में अपने बालक के लिये कई उम्मीदें होंगी कि वह एक डॉक्टर, एक अभियंता, वैज्ञानिक या कोई यशस्वी व्यवसायी बने। मेरा मानना है कि आपकी ये उम्मीदें आपके बालक के भविष्य और आपके जीवन में उसके स्थान को ध्यान में रखते हुए ही होंगी।

चूँकि एक अच्छी शिक्षा अक्सर अच्छे भविष्य का पासपोर्ट होती है, मेरी मान्यता है कि इसी कारण यह उद्देश्य आपको आपके बालक को एक अच्छे विद्यालय में प्रवेश हेतु प्रेरित करता है, तत्पश्चात्‌ आप बालक को अच्छी पढ़ाई कर परीक्षा में अच्छी सफलता पाने के लिये प्रोत्साहित करते हैं। इसी उद्देश्य को अधिक सुनिश्चित करने के लिये आप उसे किसी ट्‌यूशन क्लास में भी भेजते हैं। फलस्वरूप वह बालक बोर्ड की परीक्षाएँ और अन्य प्रवेश परीक्षाएँ देने हेतु विवश होता है ताकि उसे किसी अच्छे व्यवसायिक अभ्यासक्रम में प्रवेश मिल सके। महाविद्यालय में अच्छा यश पाने से उसे एक अच्छी नौकरी पाने की संभावनाएँ बढ़ जाती हैंऔर एक अच्छी नौकरी का अर्थ बालक का भविष्य सुनिश्चित हो जाना होता है।

मैं स्वयं न एक मनोवैज्ञानिक हूँ; ना ही एक शिक्षाविद्‌, और अब मैं जो कहूँगा वह उपरोक्त विचारों के एकदम विरूद्ध लग सकता है। मेरे विचार में यही अपेक्षाएँ और तद्‌नुसार की गई क्रियाएँ आपके बालक को अच्छाई कम और नुकसान अधिक पहुँचा सकती हैं ! ऐसा क्यों ? यह समझने के लिये हमें अपनी मूलभूत मान्यताओं को पुन: देखना होगा।

सर्वप्रथम, मैंने बार-बार यह देखा है कि किसी दूरस्थ भविष्यकालीन उद्देश्य के लिये प्रयास करते जाने का अर्थ है आप वर्तमान में नहीं जी रहे हैं। उस दूरस्थ उद्देश्य का परिणाम होगा, यश पाने के लिये परीक्षा जैसे बाह्य साधनों का आधार लेना और अधिकांश बच्चों का परीक्षा-केन्द्रित होना। उनका बच्चे होना-जैसे उत्सुक, मसखरा, शोधक, गिरना, उठना, संबंध रखना, खोज करना, संशोधन करना, काम करना, खेलना आदि वे भूलते ही जाते हैं।

बाल्यकाल एक बड़ी मौल्यवान बात होती है; ऐसी मौल्यवान, जो ज़बरदस्ती लादी गई स्पर्धाओं के नकली बोझ, किताबी अध्ययन के अनगिनत घंटों और समूचे इंसान को मात्र आँकड़ों में ही सहजता से लपेटने वाली स्कूली रिपोर्टों के द्वारा नष्ट नहीं की जानी चाहिए।

दूसरी मान्यता यह है कि सामाजिक-आर्थिक उति के लिये शिक्षा मात्र एक टिकट जैसी है, अपने राष्ट्र की वर्तमान अवस्था देखने पर यह सत्य भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। किंतु शिक्षा को केवल इसी पहलू तक सीमित रखना, मेरे विचार से शिक्षा को एक बहुत सीमित उद्देश्य के दायरे में रखना होगा। किसी विद्यालय का प्राथमिक उद्देश्य बालक को स्वयं की और अपने विश्व की खोज करने हेतु मार्गदर्शन करना और बालक की क्षमताओं को पहचान कर उनको आकार देना होता है। जैसे की एक बीज में एक भविष्य का वृक्ष छिपा होता है उसी प्रकार एक बालक अनगिनत क्षमताओं के साथ ही जन्म लेता है। ऐसे एक विद्यालय की कल्पना कीजिए जो बच्चों को बोने हेतु बीजों के रूप में देखता है-यहॉं एक शिक्षक ऐसा माली होता है जो बालकों की जन्मजात क्षमताओं को उभारने में मदद करता है। यह विचार उस वर्तमान दृष्टिकोण से, जिसमें यह माना जाता है कि एक बालक मात्र एक मिट्टी का गोला होता है जिसे अपनी इच्छानुसार ढालने वाले उसके माता-पिता और शिक्षक एक मूर्तिकार होते हैं, एकदम विपरीत है। एक पुरानी (अब स्मृति शेष भी न रही) चीनी कहावत है, एक कुम्हार को एक बीज दीजिये, और आप पाएँगे एक बोनसाई (गमले में उगा बौना वृक्ष)। एक व्यापारी संस्थान में भी लाभ पाने के लिये उसका पीछा करने से काम नहीं हो पाता। हमें एक ऐसी संस्था बनानी होती है जिसमें हर कर्मचारी को अर्थपूर्ण तथा संतोषप्रद काम करने के अवसर देना होते हैं। एक ऐसे संगठन का निर्माण हो जिसमें नवीनता, नेकी, ग्राहक-केन्द्रिता हो तथा आस्था ही उसकी चालना हो। जैसे ही आप हर पल, हर दिन इन मूल्यों का पालन करेंगे आप यह पाएँगे कि लाभ अपनी चिंता स्वयं ही कर लेता है।

ठीक उसी तरह प्रिय पालकगण, मेरी आपसे भी एक विनती है, अपने बालक का भविष्य सुरक्षित करने के लिये उसके बचपन को न गॅंवाइए। अपने बालक को निश्चिंतता से उसका जीवन टटोलने और ढूँढने की स्वतंत्रता दीजिए। ऐसा करने पर आप अपने बालक को एक सृजनशील एवं संवेदनशील इंसान के रूप में फलता-फूलता देख पाएँगे और जब ऐसा होगा तब अन्य सब कुछ यानी समृद्धि, सामाजिक सफलता, सुरक्षा अपनी जगह अपने-आप पा लेंगे।

अपने बालक को बालक ही रहने दीजिए !

(इस लेख को अंग्रेज़ी में विख्यात उद्योगपति अज़ीम प्रेमजी ने लिखा था;ब्लॉग बिरादरी के लिये अनुवाद कर अपने ब्लॉग पर जारी किया है.)